क्या आप जानते हैं सरोवर नगरी नैनीताल के बारे में, तो प्रस्तुत है संक्षिप्त लेखा जोखा….

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साभार: सोशल मीडिया

समाचार सच, हल्द्वानी। नैनीताल नगर की ऐतिहासिक एवं धार्मिक पृष्ठभूमि का उल्लेख विषय की अपरिहार्यता है। किवदन्तियों के अनुसार नैनीताल नगर की धार्मिक पृष्ठभूमि कहीं पुरानी है। अंग्रेजी हुकूमत के समय प्रदेश सरकार की ग्रीष्कालीन राजधानी, पर्यटक नगरी और जिले का मुख्यालय होने का गौरव प्राप्त है इस नगरी को। एक सौ पचास वर्षों के अपने जीवन में इस नगर ने काफी उतार चढ़ाव देखें हैं।

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इन्हीं का संक्षिप्त लेखा जोखा प्रस्तुत है यहां:-

नगर को पुकारा जाता था त्रि-ऋषि सरोवर के नाम से
नैनीताल नामकरण प्रसिद्ध नैना देवी तथा रमणीक झील के कारण हुआ। प्राचीन समय में इस नगर को ‘त्रि-ऋषि सरोवर’ नाम से पुकारा जाता था। इस ऋषि अत्रि, पुलस्त्य तथा पुल नैना पहाड़ी में भ्रमण करने गये। थक जाने के बाद उन्हें जल की आवश्यकता हुई। उन्होंने भूमि में एक गड्ढा खोदकर जल प्राप्त किया और अपनी तृष्णा शान्त की। आगे चलकर इसी गड्ढे ने वर्तमान शिलासरोवर का रूप धारण कर लिया।

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यहां गिरे थे पार्वती सती के नैन
इस सम्बन्ध में दूसरी किंवदन्ती नैना नाम से सम्बन्धित है। राजा दक्ष किसी समय भारत के उत्तरी भाग में शासन करते थे। उनकी कन्या पार्वती का विवाह महादेव जी से हुआ। राजा दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंन पार्वती के पति शंकर को नहीं बुलाया। पार्वती जी ने इसे अपना अपमान समझा और वह क्रोधवश में यज्ञ की पवित्र अग्नि में कूद गई। किसी प्रकार शिवजी ने उनके अर्द्धभस्म शरीर को प्राप्त कर लिया। वे जब इसे लेकर कैलाश पर्वत पर जा रहे थे तो मार्ग में पार्वती के नैन उस स्थान पर गिरे, जहां प्राचीन नैना देवी का मंदिर था। इसी कारण इस स्थान का नाम नैनी पड़ा। कालान्तर में नैनी और ताल (सरोवर) का संयुक्त नाम नैनीताल हुआ।

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चौथी शताब्दी में था कुमाऊँ में कत्यूरी राजाओं का शासन
इतिहास बताता है कि चौथी शताब्दी में कुमाऊँ में कत्यूरी राजाओं का शासन था। उनके बाद चन्द राजाओं का शासन प्रारम्भ हुआ। इसके पश्चात गढ़वाली और फिर गोरखा शासकों का यहां के एक हिस्से पर अधिकार रहा। सन् 1830 तक मिस्टर ट्रेल कुमाऊँ के कमिश्नर थे। उन्होंने इस स्थान को देखा तो जरूर, मगर इसकी प्राकृतिक सुन्दरता को आंक नहीं सके। 1841 में जब बैरन ने इसे देखा और कुछ समय बाद ‘आगरा अखबार’ में अपने उपनाम ‘पिलग्रिम’ से लेखों के माध्यम से इसका वर्णन किया, तभी इसका अस्तित्व प्रकाश में आया।

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सारा क्षेत्र था नरसिंह थोकदार का
उस समय तक यह सारा क्षेत्र नरसिंह नाम के एक थोकदार की सम्पत्ति थी। बैरन ने थोकदार को नाव में बिठाकर डुबो देने की धमकी देकर इसे सरकार के नाम करवा लिया और उसे यहीं पटवारी नियुक्त कर दिया।

भारतीय सेना के बंगाल व ईस्टर्न कमाण्ड का मुख्यालय रहा
आज से लगभग सौ साल पहले और खोज होने के मात्र पचास वर्ष के बाद यहां का इतना विकास हो चुका था कि भारतीय सेना के चार कमाण्डों में एक ‘बंगाल कमाण्ड’ का मुख्यालय यहां बनाया गया। बाद में 1905 में जब तीन ही कमाण्ड रह गये तब इसे ‘ईस्टर्न कमाण्ड’ का मुख्यालय बनाया गया।

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कोयले द्वारा चालित स्टीम इंजन से पानी देने की व्यवस्था
1600 में ही यहां के नागरिकों को घरों के भीतर जल वितरण की सुविधा मिल चुकी थी। नगरपालिका के रिकार्ड से पता चलता है कि विद्युत के अभाव में कोयले द्वारा चालित स्टीम इंजन से पानी ऊंची पहाड़ियों में और फिर वहां से अलग- अलग स्थानों को वितरित किया जाता था। कुछ समय तक डीजल इंजन से भी पानी वितरण की व्यवस्था रही। अन्ततः विद्युत व्यवस्था ने ही यह कार्य संभाला।

मोतीराम को देवी ने स्वप्न में दिये दर्शन
यहां का प्रसिद्ध तथा कुमाऊँ के अतिरिक्त दूरदराज तक अत्यधिक मान्यताप्राप्त नयनादेवी मंदिर, जिसके नाम से नैनी झील को जोड़कर यहां का नाम नैनीताल पड़ा, 1842 में ही बन चुका था। कहा जाता है कि लाला मोतीराम को देवी ने स्वप्न में दर्शन दिये। उसके बाद 1882 में उसी स्थल पर देवी की मूर्ति मिली जहां उन्होंने बताया था। लाला मोतीराम द्वारा इसी स्थान पर मंदिर का पुननिर्माण कराया गया, जो आज तक कायम है।

नैनीताल का पहला भवन
नैनीताल का पहला भवन मि. बैरन द्वारा 1842 में आज के नैनीताल क्लब के कुछ ही ऊपर बनाया गया था। इस भवन का नाम ‘पिलीग्रिम लॉज’ रखा गया। भवन निर्माण हेतु उसे यह भूमि 12 पैसा (2 आना) प्रतिवर्ष की लीज पर दी गयी थी। शनैः शनैः दूसरे अंग्रेजों ने भी भवन निर्माण हेतु भूमि को लीज पर दिए जाने हेतु आवेदन किए। 1843 के मध्य तक तत्कालीन कुमाऊँ कमिश्नर ल्युशिंगठन सहित 6 अंग्रेजों ने इस सम्बन्ध में आवेदन किए। 10 अगस्त 1847 तक की जो रिपोर्ट कमिश्नर ने सरकार को भेजी, उसमें लिखा था कि ‘‘नैनीताल में 40 भवन निर्मित हो चुके हैं और दो निर्माणाधीन है।’’ उसने अपनी रिपोर्ट में यह भी लिखा कि मार्च से अगस्त तक 26 पर्यटक यहां आये। 61 पर्यटकों ने यहां ग्रीष्मकाल व्यतीत किया।

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प्रथम नगर पालिका का दर्जा
अक्टूबर 1850 में नैनीताल को पश्चिमोत्तर प्रान्त की प्रथम नगरपालिका का दर्जा दिया गया। इस न गर का खोजकर्ता मि0 बैरन, प्रसिद्ध शिकारी जिम कार्बेट और कुमाऊँ कमिश्नर ल्यूशिंगटन सहित कई हस्तियां तब इस नगर पालिका के सदस्य थे। 1882 में काठगोदाम से नैनीताल तक 36 मि.मी. पैदल सड़क बनकर तैयार हुई। 1901 की जनगणना के अनुसार नैनीताल की जनसंख्या 1609 थी।

नैनीताल: एक नजर में

1841: पीटर बैरन द्वारा नैनीताल की खोज।
1845: बैरन नगरपालिका के प्रथम सदस्य बने।
1850: नगरपालिका का विधिवत गठन हुआ।
1880: ऐतिहासिक भूस्खलन में 150 व्यक्ति मारे गये व नैनीताल का पुर्ननिर्माण प्रारम्भ।
1882: नैना देवी मंदिर का वर्तमान स्थान पर निर्माण।
1887: किंग एडवर्ड सप्तम, लाई कर्जन तथा रीडिंग यहां की यात्रा पर आये।
1891: नैनीताल स्वतंत्र जिला बना।
1892: कुमाऊँ कमिश्नर हैनरी रैमजे की याद में रैमजे अस्पताल का निर्माण।
1896: पहला सार्वजनिक अस्पताल बी.डी. पाण्डे (तत्कालीन कांस्अेवेट) का निर्माण जनता द्वारा चंदा देकर किया गया।
1899: जल वितरण व्यवस्था आरम्भ हुई।
1901: स्वामी विवेकानंद का नैनीताल आगमन।
1904: लाला लाजपत राय का नैनीताल आगमन।
1906: जवाहर लाल नेहरू का नैनीताल आगमन।
1926: महात्मा गांधी का नैनीताल आगमन।
1934: पं. गोबिन्द बल्लभ पंत ने अवज्ञा आंदोलन चलाकर जेल यात्रा की।
1947-48: नैनीताल-भवाली मार्ग यातायात हेतु खुला।
1950-51: नीम करौली बाबा द्वारा हनुमान गढ़ी का निर्माण।
1950: ठा0 देव सिंह बिष्ट डिग्री कालेज की स्थापना।
1955: मनोरा पीक में वेधशाला की स्थापना।
1973: कुमाऊं विश्वविद्यालय की स्थापना।
1977: नैनीताल क्लब वृक्ष कटान विरोधी आंदोलन के तहत आंदोलनकारियों द्वारा जला दिया गया।
1985: रज्जु मार्ग का निर्माण।
1986-87-88: तीन व पांच तारा होटलों का अंधाधुंध निर्माण प्रारम्भ।
1988: सत्रह वर्षों बाद पालिका के चुनाव हुए। प्राधिकरण हटाने के लिए जबरदस्त आंदोलन प्रारंभ।
(साभार: लेखक शक्ति प्रसाद सकलानी की ‘तराई – रुद्रपुर का इतिहास और विकास’ पुस्तक से )

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