एक बार मैंने सोचा कि गायकी छोड़ दूँ लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ…

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-“चाँदी बटना दाज्यू कुर्ती कॉलर मा, मेरी मधुली जै रे ब्यूटी पार्लर मा।” गाने ने मचाई थी धूम…

-सूपा भरी धाना, झुमक्याली, जलेबी को डाब, घाम छाया ले, साली लसपाली, भारत को मुकुट हिमालय प्रसिद्ध गीत

-दो-तीन साल टेलर का काम भी किया

-मंगल दा, जीवन दा और पप्पू कार्की ने भी किया उनके साथ काम

समाचार सच, हल्द्वानी। आपने भी कभी ना कभी किसी गाने पर स्कूल में क्लास की डेस्क जरूर बजाई होगी। लेकिन फिर जिंदगी की भागदौड़ में वो गाने का शौक या डेस्क को ही तबले की तरह बजाने का शौक कहीं पीछे छूट गया होगा। लेकिन भैंसकोट, पिथौरागढ़ में जन्मे एक लड़के ने अपना ये शौक जिंदा रखा और समय के साथ-साथ उसमें और भी निखार आता गया। स्कूल से शुरू हुआ यह सफर उन्हें यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड से नवाज़े जाने तक जारी रहा। बीच में एक वक़्त ऐसा भी आया जब उनके पास पैसे भी खत्म हो गए और उनको लगा कि गलत चीज चुन ली यह कलाकारी। लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि वे दोबारा मजबूती से लौटे और वास्तव में कलाकारी तब से शुरू हुई।

30 वर्षों से अपने संगीत से लोगों के दिलों पर राज कर रहे प्रसिद्ध कुमाऊँनी लोकगायक प्रहलाद मेहरा द्वारा संपादक अजय चौहान और मोटिवेशनल स्पीकर कुलदीप सिंह को दिए गए एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के कुछ मुख्य अंश:

आप अपने परिवार और शिक्षा- दीक्षा के बारे में कुछ बताएं ?

हम लोग दो भाई हैं। ईजा-बौजू बिंदुखत्ता में ही रहते हैं। पिताजी सन् 2000 में शिक्षा विभाग से भैंस कोट से रिटायर हुए। मैं आठवीं तक पिताजी के संरक्षण में ही रहा।

संगीत में रुचि कब बड़ी?

मेरी माताजी बहुत अच्छी चाँचरी गाती है। मैं भी 15 अगस्त तथा बाल सभा में गाता था। आठवीं के बाद मैं पढ़ाई के लिए नाचनी आ गया। और घर से दूर था तो कोई रोकने-टोकने वाला भी नहीं था। मैं और मेरे 7- 8 दोस्त इंटरवल या खाली पीरियड के समय स्कूल में डेस्क बजा के गाना-बजाना करते थे। पढ़ाई-लिखाई मेरी बहुत सही से नहीं हो पाई। मुझे 8-12 क्लास पास करने में 9 साल का समय लगा और वह भी पिताजी की जिद थी कि बिना नकल किए इंटर तो पास करना ही है चाहे कैसे भी कर।

आपने अपनी पहली कैसेट कब रिकॉर्ड की?

मैंने दसवीं कक्षा में अपना पहला कैसेट “पतरौला दाज्यू” रिकॉर्ड किया था। अगस्त 1988 में पिथौरागढ़ के प्रकाश जोशी जी ने यह रिकॉर्ड कराई।

आपने कहाँ-कहाँ नौकरी की?

1991 में मैं अल्मोड़ा आया। आकाशवाणी से स्वर परीक्षा पास की और रेडियो में खूब गाने गाए। एक गीत के लिए 750 से ₹800 मिलते थे। चंदन बोरा जी(हुड़का वादक) के ग्रुप “जय नंदा लोक कला केंद्र” में भी कई प्रोग्राम करने का मौका मिला।

1997-98 में नैनीताल के ड्रामा डिवीजन में भी 2 साल काम किया। वहाँ रोज 5 घंटे रिहर्सल करनी पड़ती थी। वह मुझे बंधन जैसा लगता था। लेकिन वहां रहकर मैंने काफी सारी चीजें सीखी जैसे गीत को तैयार करना, प्रस्तुत करना, कपड़ों का चयन, हाव-भाव आदि।

वहाँ से नौकरी छोड़ने के बाद आपने क्या किया?

वहां से आने के बाद मैंने “जन जागृति सांस्कृतिक कला समिति” नाम से अपना ग्रुप बनाया। शुरुवात में केवल हम दो ही लोग थे। मैं और मंगल सिंह(प्रसिद्ध हास्य कलाकार)। हमने गांव के बच्चों को ही तालीम दी। हमने विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाग लिया और यूपी में हमें पहला स्थान भी मिला। मंगल और मैं चेन्नई भी गए।

मंगल दा से कैसे मुलाकात हुई?

रामलीला में। मंगल सिंह इतने प्रतिभाशाली कलाकार थे कि लोग उनके चुटकुलों पर घर जाकर हंसते थे। उस वक्त हम बिना पैसे के भी प्रोग्राम करने के लिए चले जाते थे।

क्या आपने गाना गाने के अलावा और कोई काम भी किया?

मैंने भैंसकोट में एक दुकान भी खोली और दो-तीन साल टेलर का काम भी किया। लेकिन मैं दुकान में भी कहां रहता था। मैं लोगों का कपड़ा दुकान में रख देता था और जहां-तहां गाना गाने चला जाता था। फिर आने के बाद लोग बहुत गाली देते थे।

आपकी दूसरी कैसेट बाज़ार में कौन सी आयी?

मैं दोबारा दिल्ली गया और “रितु रैणा” नाम से कैसेट निकाली। “देवरा मोहना तेरी केमुआ गाड़ी, यो हिटणी बाटा सिटी मारनी।” “पहाड़े की चेली ले कभी नी खाया दो रोटी सुख से।”-यह मेरा पहला गीत है जिसको मैंने खुद लिखा। लेकिन मुझे कोई जानता नहीं था।

आपको पहचान कब मिली?

जब गानों का वीडियो बनने लगा तो लोग मुझे जानने लगे और हमें स्टार नाइट, उत्सव-महोत्सव में बुलाने भी लगे। पैसे भी अच्छे मिलने लगे। ₹5000-₹6000 इनाम हो जाता था।

ऐसा कोई समय आया जब आपको लगा की गायकी छोड़ दूँ?

आदमी को हताशा तब होती है जब बहुत मेहनत करने के बाद भी उसकी आवश्यक आवश्यकता पूरी नहीं होती।

मेरे तीन बच्चे हैं। 3 में से दो पढ़ने वाले थे। एक बार ऐसी स्थिति आ गई कि बच्चों का एडमिशन करना था और ड्रेस भी बनानी थी। बरसात हो रही थी। 5000-6000₹ का खर्चा था। मेरे पास पैसे-वैसे कुछ नहीं थे। खेतीबाड़ी से उतना नहीं हो पाता था। तब लगा कि गलत चीज चुन ली यह कलाकारी। फिर मैं दिल्ली की एक कंपनी में गाने रिकॉर्ड करके दो ढाई हजार रुपए लेकर घर आ गया।

आपको कब लगा कि आप काम ठीक कर रहे हो?

यह 2011 की बात है। मेरे सबसे बड़े लड़के की दोनों किडनी फेल हो गई और उसको निमोनिया भी हो गया। वह खून की उल्टी करने लग गया और मैं घर में नहीं था। बरेली में एक हफ्ते में करीब ढाई लाख रुपए का खर्चा आया।

फिर हम दिल्ली में ऐम्स चले गए। एम्स में 20-25 लाख रुपए का खर्चा आया। पैसे भी नहीं थे। उस समय लोगों ने मेरी बहुत मदद की। मेरा अकाउंट जैसे अभी शाम को खाली हो जाता था तो उसमें सुबह 20, 25, 50000₹ आ जाते थे। मेरा लगभग कोई भी पैसा खर्च नहीं हुआ।

तो मुझे महसूस हुआ – अरे! मैं तो कलाकार हूं। लोग मुझे इतना जानते हैं। मैं काम तो बढ़िया कर रहा था। मैं खाली मायूस हो रहा था। वास्तव में कलाकारी तब से शुरू हुई।

आप बेटे का इलाज कराके दिल्ली से कब लौटे?

2 साल बाद। उस वक्त तक मैंने ग्रुप की सारी चीजें पप्पू कार्की को सौंप दी थी। उसने 2 साल में बहुत बढ़िया कर लिया था। उसके बाद मेरे पिताजी को भी हार्ट अटैक पड़ गया। तब पप्पू ने मेरी मदद की थी। तब मैंने कहा था कि “मेरी नजर में तेरे जैसा कलाकार पूरे उत्तराखंड में नहीं है बाकी दुनिया कब पहचानेगी ये मैं कह नहीं सकता”। फिर हम दोनों एक साथ कार्यक्रम करने लगे।

आपके गाने यूट्यूब पर कब आए?

टोलिया जी से मिलने के बाद। टोलिया जी से मुझे पप्पू कार्की ने मिलवाया था। अब कोई दिक्कत आती है तो टोलिया जी खुले दिल से बहुत मदद करते हैं। वह सभी कलाकारों के साथ बराबर व्यवहार करते हैं। वही उस आदमी की महानता है। वह केवल जोड़ना जानते हैं, तोड़ना नहीं।

पप्पू कार्की से कैसे मुलाकात हुई?

उसे मैं गांव से ही जानता था। वैसे मुलाकात हल्द्वानी आने के बाद हुई। मैंने उसे अपने साथ जोड़ा। हमारे आने के बाद कोई आदमी परेशानी में रहे तो अच्छी बात नहीं है। उसने भी मेहनत बहुत की।

ऐसा कलाकार सदियों में पैदा होता है। जिस तरह उसकी गायन की शैली थी और शब्दों का उच्चारण था। उसके जाने का भी बहुत दुख है।

आपको कौन-कौन से सम्मान मिल चुके हैं?

“सूपा भरी धाना” के लिए मुझे यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड मिला। फिर मैंने “साली लसपाली” गाया। यह गाना मैंने मुनस्यारी जाकर वहां के गाने वाले लोगों के घर में रहकर सीखा।

आपका अगला गाना कौन सा आने वाला है?

मैं अपने आगे आने वाली वीडियो में दानपुर की पूरी संस्कृति को भी दर्शाना चाहता हूं। मैं इस पर 2 साल से मेहनत करने में लगा हूं।

आपको आजकल के गाने और पुराने जमाने के गानों में क्या अंतर लगता है?

गीत वही पुराने हैं। पिछले 2 वर्षों से ऐसा चल रहा है कि पुराने गानों को गाकर उसमें ताल या म्यूजिक बढ़िया कर देते हैं जैसे फ्यूजन डालकर। हमारे पास शब्दकोश भी बहुत ज्यादा बड़ा नहीं है। ज्यादातर चीजें पहले के लोगों ने ही कह दी हैं।

युवा गायकों के लिए आपका क्या संदेश है?

अपनी भाषा-बोली को जिंदा रखने के लिए शब्द भी हमारे ही हों। जैसे कि गानों में ईजा शब्द का प्रयोग करें मम्मी का नहीं।

हमारे यहां समूह में गीत गाने और सुनने की प्रथा है। ऐसी चीजों को गाया जाए जो समूह में परिवार के साथ बैठकर सुनी जा सके।

सब आपके फैन हैं। आप किस के फैन हैं?

रेडियो पर गोपाल बाबू गोस्वामी, नरेंद्र सिंह नेगी, चंद्र सिंह राही, चंदन बोरा जी, शंकर उप्रेती जी के गाने बहुत सुने हैं। मनोहर बृजवाल जी भी बहुत अच्छी ग़ज़ल गाते हैं।

खाने-पीने में आप क्या पसंद करते हैं?

मूली का थेचुआ, मट्ठा, झोली-भात, लहसुन का नमक और मडुवे की रोटी।

कभी-कभी वॉलीबॉल और बैडमिंटन भी खेलता हूं।

सरकार से आपकी कोई मांग?

30 सालों से मैं निरंतर संगीत से जुड़ा रहा हूँ। मुझे दुख इस बात का है कि आकाशवाणी से मुझे बी हाई ग्रेड प्राप्त है जबकि संस्कृति विभाग ने मुझे बी ग्रेड में रखा है। हमें डिमांड के अनुरूप कार्यक्रमों में भेजा नहीं जाता है। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए कि साल भर में कलाकारों को लगातार प्रोग्राम जरूर दिए जाने चाहिए। भाषा और संस्कृति मूल पहचान है। अगर यह नहीं रहेंगे तो हम किससे कहेंगे कि हम पहाड़ी हैं, उत्तराखंडी हैं।

आप अपने अनुभव को आगे की पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए भविष्य में क्या करना चाहते हैं?

अब मैं भविष्य में यहीं अपने घर पर ही नए बच्चों को संगीत की तालीम देना शुरू करूंगा। अभी भी बहुत से बच्चों को संगीत की बारीकियों के बारे में निशुल्क बता देता हूं।

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