पूर्णावतार के रूप में पूजा जाता है श्रीकृष्ण
भारतीय संस्कृति में पूजित दशावतारों (मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृकृष्ण, बुद्ध एवं कल्कि का आगमन होना है) में से आठवें अवतार श्रीकृकृष्ण का जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। उन्होंने 120 साल तक भारत भूमि को अपनी लीलाओं से पवित्र किया। भारतीय मनीषियों ने उन्हीं महामानवों को अवतार माना, जो समाज या शासन की प्रचलित दूषित धाराओं के विरुद्ध साहस से खड़े हुए और उसे बदल कर दिखाया। श्रीकृकृष्ण के जीवन को इसी दृष्टि से समझने की आवश्यकता है।
सत्ता के लिए सगे संबंधियों में संघर्ष आज की तरह 5.000 वर्ष पूर्व भी होते थे। इसीलिए कंस ने अपने पिता उग्रसेन को सिंहासन से हटाकर शासन पर अधिकार कर लिया। इतना ही नहीं, जब उसे पता लगा कि उसकी प्रिय बहिन देवकी का आठवां पुत्र उसका काल बनेगा, तो उसने बहिन के साथ अपने बहनोई वसुदेव को भी जेल में डाल दिया। इसके बाद की कहानी तो जगविख्यात है। पर उसे सही संदर्भों में समझना जरूरी है।
कंस के अत्याचार से सारा ब्रजमंडल दुःखी था। पिता, बहिन और बहनोई को जेल में डालकर स्वयं सत्ता सुख भोगने वाले को समाज कैसे अच्छा मान सकता था। पर अत्याचारी राजा के शासन में जनता चुप रहने को विवश रहती है। ऐसे में मुंह खोलने का अर्थ है जान से हाथ धोना, और जान किसे प्यारी नहीं होती। इसलिए आम आदमी इसे समय का फेर मानकर अपने दैनन्दिन काम में लगा रहता था। पर इसका अर्थ यह नहीं था कि लोग कुछ करना ही नहीं चाहते थे। बस, वे उचित समय की प्रतीक्षा में थे। ऐसे में श्रीकृष्ण के जन्म की आहट से उनकी आंखों में चमक आ गयी। सामान्य जनता और जेल के रक्षकों ने मिलकर ऐसी सटीक योजना बनायी कि कंस को कानोंकान खबर नहीं हुई और श्रीकृष्ण गोकुल पहुंच गये।
कहा जाता है कि श्रीकृष्ण के जन्म के समय जेल के फाटक खुल गये। पहरेदार सो गये। वासुदेव और देवकी की हथकड़ी-बेड़ियां टूट गयीं। इसका सीधा सा अर्थ है जेल के पहरेदार से लेकर हथकड़ियां काटने वाले लुहार तक सबकी मिलीभगत से यह हुआ। चूंकि सब चाहते थे कि श्रीकृष्ण सुरक्षित रहें और कंस जैसे अत्याचारी शासक का अंत हो। इसलिए उन्होंने कंस को देवकी के आठवीं संतान होने की सूचना तब ही दी, जब वासुदेव श्रीकृष्ण को गोकुल में यशोदा और नंदबाबा के पास छोड़कर वापस जेल में आ गये।
भादो मास भरपूर वर्षा एवं बाढ़ का काल होता है। ऐसे समय में अर्धरात्रि में यमुना को पार करना भी बड़े जोखिम का काम था। पर यहां तो केवल श्रीकृष्ण के ही नहीं, तो सम्पूर्ण ब्रजमंडल के जीवन-मरण का प्रश्न था। इसलिए केवल सैनिक और पहरेदार ही नहीं, तो यमुना में नौकायन से जीवनयापन करने वाले निर्धन लोगों ने भी उनकी पूरी सहायता की। उन्होंने दूर से नाग के फण जैसी दिखने वाली एक नौका का प्रबंध किया, जिससे वसुदेव और बालक श्रीकृष्ण सुरक्षित यमुना पार कर गये। फिर इसी प्रकार वासुदेव यशोदा की कन्या को लेकर वापस लौट भी आये।
यह घटना स्पष्ट रूप से इंगित करती है कि श्रीकृष्ण के जन्म की घटना से सम्पूर्ण ब्रजमंडल का हर व्यक्ति जुड़ा हुआ था। कंस अपने महलों में चाटुकारों से घिरा सुरा-सुंदरी में डूबा था। उसे छोड़कर बाकी सबको पता था कि आज देवकी को आठवीं संतान होने वाली है। आठवीं संतान अर्थात कंस का काल और ब्रज का उद्धारक। मथुरा के सब नागरिक इतने चिंतित थे कि उन्होंने खाना तो दूर, पानी तक नहीं पिया। जब उन्हें अर्धरात्रि में श्रीकृष्ण के सुरक्षित गोकुल पहुंच जाने की सूचना मिली, तब ही उन्होंने अन्न-जल ग्रहण किया। उसी की याद में आज भी लोग जन्माष्टमी पर निर्जल व्रत रखते हैं और रात को बारह बजे के बाद उसका पारण करते हैं।
श्रीकृष्ण के जीवन के ‘कालिय दमन’ नामक प्रसंग को सामान्य दृष्टि से यदि देखें, तो वह हर नगर में जड़ जमाये माफियाओं के दमन की घटना लगती है। यमुना के किनारे कालिया नामक माफिया का आतंक। आने-जाने और स्नान करने वालों से मारपीट, महिलाओं से छेड़छाड़, नौकायन और मछली पालन से जीवनयापन करने वालों से हफ्ता वसूली। ऐसे गुंडे आज भी पुलिस के सहारे ही पलते हैं। उस कालिया दादा को भी कंस के राज्य के सुरक्षाकर्मियों का संरक्षण मिलता था। निःसंदेह उन्हें भी कुछ हिस्सा पहुंचता ही होगा।
पर श्रीकृष्ण ने उससे झगड़ा मोल लेकर यमुना के निकटवर्ती क्षेत्र को आतंक से मुक्त करने का निश्चय कर लिया। ‘आक्रमण ही सबसे अच्छी सुरक्षा है’ का सूत्र अपनाकर वे गेंद के बहाने उसके घर में ही घुस गये और उसे इतना मारा कि उसने वह क्षेत्र छोड़ दिया। श्रीकृष्ण के जीवन के अतिमानवीय प्रसंगों को इसी दृष्टि से समझने का प्रयास करें, तो ध्यान में आयेगा कि उन्होंने उस समय प्रचलित सभी कुरीतियों और दूषित मान्यताओं को केवल चुनौती ही नहीं दी, अपितु अपने संगठन और बुद्धि कौशल से उन्हें परास्त भी किया।
श्रीकृष्ण भगवान थे, इस मान्यता को यदि कोई न माने, तो भी उनका जीवन अलौकिक तो था ही। उनका जन्म अपने मामा की जेल में हुआ। उनसे पहले के छह भाइयों की निर्मम हत्या हुई थी। जन्मते ही उन्हें अपने माता-पिता से अलगाव सहना पड़ा। उन्हें कई बार कंस द्वारा भेजे गये असुरों से संघर्ष करना पड़ा। गाय चराकर जिनका बचपन बीता। विषम परिस्थितियों में गोकुल, वृन्दावन और फिर मथुरा भी जिन्हें छोड़ना पड़ा। जिन्हें चचेरे भाइयों के बीच हुए महायुद्ध का साक्षी बनना पड़ा। जीवन के संध्याकाल में दुर्व्यसनों से ग्रस्त अपने ही वंश को समाप्त करने का निर्णय जिन्हें लेना पड़ा। ऐसे व्यक्तित्व की तुलना विश्व इतिहास में कहीं और हो सकती है क्या?
इतनी विषमताओं के बावजूद भी श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ थे। उन्होंने महाभारत जैसे युद्धस्थल पर दोनों पक्ष की सेनाओं के बीच में खड़े होकर अर्जुन को माध्यम बनाकर जो संदेश दिया, वह श्रीमद्भगवदगीता के रूप में तनाव और अकर्मण्यता से त्रस्त विश्व के कष्ट निवारण की अनूठी दवा है। जब व्यक्ति सब ओर से निराश हो जाता है, तब श्रीकृष्ण की वाणी ही उसका सहारा बनती है। इसीलिए तो श्रीकृष्ण को भगवान और पूर्णावतार मानकर पूजा जाता है।
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