जानिए क्यों मनाया जाता हैं उत्तराखण्ड में हरेला पर्व…

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समाचार सच। देवभूमि से जुड़े कुछ लोगों के यहां ये पर्व चैत्र, श्रावण और आषाढ़ के शुरू होने पर यानी वर्ष में तीन बार मनाया जाता है, तो कहीं एक बार। इनमें सबसे अधिक महत्व श्रावण के पहले दिन पड़ने वाले हरेले पर्व का होता है, क्योंकि ये सावन की हरियाली से सराबोर होता है। दरअसल हरेला का पर्व नई ऋतु के शुरू होने का सूचक है। वहीं सावन मास के हरेले का महत्व उत्तराखण्ड में इसलिए बेहद महत्व है, क्योंकि देव भूमि को देवों के देव महादेव का वास भी कहा जाता है।

हरेला कुमाऊँ का प्रमुख त्यौहार होने के कारण कुमाऊँवासियों के घर-घर में बड़े उल्लास व उत्साह से मनाया जाता है। हरेला कुमाऊँ वासियों का प्रमुख पर्व है यह पूरे कुमाऊँ में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। चूंकि कुमाऊँवासी आदिकाल से प्रकृति के पुजारी रहे हैं और प्रकृति में ही अपने देवी-देवताओं के स्वरूप को देखते आये हैं अतः इसी भावना को जीवान्त बनाये रखने के लिए हरेला पर्व मनाया जाता है। इसके माध्यम से पर्यावरण का संदेश भी आम जनता तक पहुंचाने का प्रयास किया जाता है।
आचार्य गोपाल दत्त द्वारा बताया है कि देवभूमि में भगवान शंकर का घर हिमालय और ससुराल हरिद्वार दोनों होने के कारण उनकी विशेष पूजा अर्चना होती है और ऐसे में सावन के मास का हरैला आता है तो इस दिन शिव-परिवार की मूर्तियां भी गढ़ी जाती हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। शुद्ध मिट्टी की आकृतियों को प्राकृतिक रंगों से शिव-परिवार की प्रतिमाओं का आकार दिया जाता है और इस दिन उनकी पूजा की जाती है।
सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में हरेला बोने के लिए किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी का चयन किया जाता है। इसमें मिट्टी डालकर गेहूँ, जौए धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि 5 या 7 प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह को पानी छिड़कते रहते हैं। दसवें दिन इसे काटा जाता है। 4 से 6 इंच लम्बे इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है। हरेला के दिन घर की बुजुर्ग महिला सभी सदस्यों को हरेला लगाती हैं। लगाने का अर्थ यह है कि हरेला सबसे पहले पैरो, फिर घुटने, फिर कन्धे और अन्त में सिर में रखा जाता है और कुमाऊँनी भाषा में गीत गाते हुए छोटों को आशीर्वाद दिया जाता हैं-
“जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,
हिमाल में ह्यूं छन तक,
गंग ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये,
अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो।

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हरेले का महत्व इस बात से भी समझा जा सकता है कि अगर परिवार का कोई सदस्य त्योहार के दिन घर में मौजूद न हो, तो उसके लिए बकायदा हरेला रखा जाता है और जब भी वह घर पहुंचता है तो बड़े-बजुर्ग उसे हरेले से पूजते हैं। वहीं कई परिवार इसे अपने घर के दूरदराज के सदस्यों को डाक द्वारा भी पहुंचाते हैं। एक अन्य विशेष बात है कि जब तक किसी परिवार का विभाजन नहीं होता है, वहां एक ही जगह हरेला बोया जाता है, चाहे परिवार के सदस्य अलग-अलग जगहों पर रहते हों। परिवार के विभाजन के बाद ही सदस्य अलग हरेला बो और काट सकते हैं। इस तरह से आज भी इस पर्व ने कई परिवारों को एकजुट रखा हुआ है। साथ ही इसके मूल में यह मान्यता निहित है कि हरेला जितना बड़ा होगा उतनी ही फसल बढ़िया होगी! साथ ही प्रभू से फसल अच्छी होने की कामना भी की जाती है।

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