समाचार सच. अध्यात्म डेस्क। अत्यन्त प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक चिन्ह को मंगल का प्रतीक माना जाता रहा है। किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिन्ह अंकित कर उसका पूजन किया जाता है। महिलाएं अपने हाथों पर मेहन्दी से स्वस्तिक चिन्ह बनाती है। इसे दैवी विपत्ति या दुष्टात्माओं से मुक्ति दिलाने वाला माना जाता है। स्वस्तिक शब्द का अर्थ हुआ ‘अच्छा’ या ‘मंगल’ करने वाला। ‘अमर कौश’ में ‘स्वस्तिक’ का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्य कार्य लिखा है। ‘अमर कोश’ के शब्द है -‘स्वस्तिकः सर्वतो, अर्थात सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो। इसमें ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना निहित है।
भारत की तरह विदेशों में भी स्वस्तिक को शुभ और विजय का प्रतीक माना गया है। सिन्धु घाटी की सभ्यता से लेकर मत्स्य पुराण, पाणिनी की व्याकरण, बौद्ध और जैन धर्मों में इसे मंगल का प्रतीक माना गया है। यूनान, साइप्रस, आस्ट्रिया, टर्की, इटली, स्काटलैण्ड, चीन, तिब्बत, वेल्जियम, आयरलैण्ड आदि देशों में भी स्वास्तिक में भी स्वस्तिक को मंगल और विजय का प्रतीक चिन्ह माना गया है। कुछ ईसाई पुरातत्ववेताओं का विचार है कि ‘क्रास’ का भी प्राचीनतम रूप स्वस्तिक ही है।
स्वस्तिक की दो मुख्य रेखाएं पुरूष और प्रकृति की प्रतीक है। भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक चिन्ह को विष्णु, सूर्य, सृष्टि चक्र तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे गणेश का प्रतीक मानकर इसे भी गणेश के समान प्रथम वन्दनीय माना है। पुराणों में इसे सुदर्शन चक्र का प्रतीक माना गया है। वायवीय संहिता में स्वस्तिक को आठ यौगिक आसनों में एक बतलाया गया है। यास्काचार्य ने इसे ब्रह्म का ही रूप माना है। स्वस्तिक में बनने वाले चार समकोणों को चार ‘देवताओं’ का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसकी चार भुजाओं को हिन्दुओं के चार वर्ण तो कुछ ने इन्हें ब्रह्मा के चार मुख, चार हाथ तथा चार वेदों के रूप में स्वीकारा है। स्वस्तिक की खड़ी रेखा को स्वयंभू ज्योतिर्लिंग तथा आड़ी रेखा को विश्व के विस्तार को संकेत माना जाता है। चतुर्मास में स्वस्तिक व्रत करने और मन्दिर में अष्ठदल से स्वस्तिक बनाकर पूजन करने से महिलाओं को वैधव्य को भय नहीं रहता। (कादम्बिनी, नवम्बर, 1995 में योगेशचन्द शर्मा)


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