-वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ ब्रह्म मुहुर्त पर 4:30 बजे खोले गए भू वैकुंठ श्री बद्रीनाथ धाम के श्री कपाट
समाचार सच, देहरादून। पूरे विधि-विधान से पूजा अर्चना के बाद आज सुबह 4.30 बजे बदरीनाथ मंदिर के कपाट खोल दिए गए। इस बार बेहद सादगी के साथ कपाट खोले गए। कपाटोद्घाटन में मुख्य पुजारी रावल, धर्माधिकारी भूवन चन्द्र उनियाल, राजगुरु, हकहकूकधारियो सहित केवल 27 लोग ही शामिल हो सके। बदरीनाथ धाम के कपाट खोलने की प्रक्रिया 14 मई से ही शुरू हो गई थी। भगवान बदरी विशाल के धाम को 10 क्विंटल गेंदे के फूलों से सजाया गया है। कपाट खोलने से पहले बदरीनाथ सिंह द्वार, मंदिर परिसर, परिक्रमा स्थल, तप्त कुंड के साथ ही विभिन्न स्थानों को सैनिटाइज किया गया। धाम के कपाटोद्घाटन पर मौजूद रहने के लिए सिर्फ 28 लोगों को ही रहने की अनुमति दी गई। योग ध्यान बदरी मंदिर पांडुकेश्वर में कुबेर जी, उद्धव जी और गरुड़ जी की विशेष पूजाएं हुईं। हक-हकूकधारियों ने सामाजिक दूरी का पालन करते हुए भगवान श्री बदरीनाथ की पूजा अर्चना की और पुष्प अर्पित किए। बदरीनाथ धाम को 10 क्विंटल गेंदे के फूलों से सजाया गया है। पुष्प सेवा समिति ऋषिकेश की ओर से मंदिर को सजाया गया।


देवस्थानम बोर्ड के मीडिया प्रभारी डॉ. हरीश गौड़ ने बताया कि पुष्प सेवा समिति ऋषिकेश की ओर से मंदिर को सजाया गया है। जब से चारधाम यात्रा शुरू हुई है तब से अब तक बदरीनाथ धाम के इतिहास में यह पहली बार हुआ है जब धाम में कपाट खुलने के समय वेद मंत्रों और जय बदरीनाथ का जयघोष तो सुनाई दिए, लेकिन उनके भक्तों का हुजूम मौजूद नहीं रहा। इतना ही नहीं इतिहास में पहली बार बदरीनाथ धाम के कपाट तय तिथि 30 अप्रैल को न खुलकर इस बार कोरोना संकट के कारण तिथि को बदलकर 15 मई कर दिया गया। वर्ष 1920 में स्वामी विवेकानंद सरस्वती हैजा रोग फैलने के कारण बदरीनाथ की तीर्थयात्रा पर नहीं जा पाए थे और कर्णप्रयाग से ही लौट गए थे। लेकिन तब यह संकट की स्थिति यात्रा के मध्य में आई थी।
बद्रीनाथ अथवा बद्रीनारायण मन्दिर भारतीय राज्य उत्तराखण्ड के चमोली जनपद में अलकनन्दा नदी के तट पर स्थित एक हिन्दू मन्दिर है। यह हिंदू देवता विष्णु को समर्पित मंदिर है और यह स्थान इस धर्म में वर्णित सर्वाधिक पवित्र स्थानों, चार धामों, में से एक यह एक प्राचीन मंदिर है जिसका निर्माण ७वीं-९वीं सदी में होने के प्रमाण मिलते हैं। मन्दिर के नाम पर ही इसके इर्द-गिर्द बसे नगर को भी बद्रीनाथ ही कहा जाता है। भौगोलिक दृष्टि से यह स्थान हिमालय पर्वतमाला के ऊँचे शिखरों के मध्य, गढ़वाल क्षेत्र में, समुद्र तल से ३,१३३ मीटर (१०,२७९ फ़ीट) की ऊँचाई पर स्थित है। जाड़ों की ऋतु में हिमालयी क्षेत्र की रूक्ष मौसमी दशाओं के कारण मन्दिर वर्ष के छह महीनों (अप्रैल के अंत से लेकर नवम्बर की शुरुआत तक) की सीमित अवधि के लिए ही खुला रहता है। यह भारत के कुछ सबसे व्यस्त तीर्थस्थानों में से एक है; २०१२ में यहाँ लगभग १०.६ लाख तीर्थयात्रियों का आगमन दर्ज किया गया था।
बद्रीनाथ मन्दिर में हिंदू धर्म के देवता विष्णु के एक रूप “बद्रीनारायण” की पूजा होती है। यहाँ उनकी १ मीटर (३.३ फीट) लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे आदि शंकराचार्य ने ८वीं शताब्दी में समीपस्थ नारद कुण्ड से निकालकर स्थापित किया था। इस मूर्ति को कई हिंदुओं द्वारा विष्णु के आठ स्वयं व्यक्त क्षेत्रों (स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं) में से एक माना जाता है। यद्यपि, यह मन्दिर उत्तर भारत में स्थित है, “रावल” कहे जाने वाले यहाँ के मुख्य पुजारी दक्षिण भारत के केरल राज्य के नम्बूदरी सम्प्रदाय के ब्राह्मण होते हैं। बद्रीनाथ मन्दिर को उत्तर प्रदेश राज्य सरकार अधिनियम – ३०/१९४८ में मन्दिर अधिनियम – १६/१९३९ के तहत शामिल किया गया था, जिसे बाद में “श्री बद्रीनाथ तथा श्री केदारनाथ मन्दिर अधिनियम” के नाम से जाना जाने लगा। वर्तमान में उत्तराखण्ड सरकार द्वारा नामित एक सत्रह सदस्यीय समिति दोनों, बद्रीनाथ एवं केदारनाथ मन्दिरों, को प्रशासित करती है।
विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण जैसे कई प्राचीन ग्रन्थों में इस मन्दिर का उल्लेख मिलता है। आठवीं शताब्दी से पहले आलवार सन्तों द्वारा रचित नालयिर दिव्य प्रबन्ध में भी इसकी महिमा का वर्णन है। बद्रीनाथ नगर, जहाँ ये मन्दिर स्थित है, हिन्दुओं के पवित्र चार धामों के अतिरिक्त छोटे चार धामों में भी गिना जाता है और यह विष्णु को समर्पित १०८ दिव्य देशों में से भी एक है। एक अन्य संकल्पना अनुसार इस मन्दिर को बद्री-विशाल के नाम से पुकारते हैं और विष्णु को ही समर्पित निकटस्थ चार अन्य मन्दिरों – योगध्यान-बद्री, भविष्य-बद्री, वृद्ध-बद्री और आदि बद्री के साथ जोड़कर पूरे समूह को “पंच-बद्री” के रूप में जाना जाता है। ऋषिकेश से यह २९४ किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित है।
हिमालय में स्थित बद्रीनाथ क्षेत्र भिन्न-भिन्न कालों में अलग नामों से प्रचलित रहा है। स्कन्दपुराण में बद्री क्षेत्र को “मुक्तिप्रदा” के नाम से उल्लेखित किया गया है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि सत युग में यही इस क्षेत्र का नाम था। त्रेता युग में भगवान नारायण के इस क्षेत्र को “योग सिद्ध”, और फिर द्वापर युग में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन के कारण इसे “मणिभद्र आश्रम” या “विशाला तीर्थ” कहा गया है। कलियुग में इस धाम को “बद्रिकाश्रम” अथवा “बद्रीनाथ” के नाम से जाना जाता है। स्थान का यह नाम यहाँ बहुतायत में पाए जाने वाले बद्री (बेर) के वृक्षों के कारण पड़ा था। एडविन टी॰ एटकिंसन ने अपनी पुस्तक, “द हिमालयन गजेटियर” में इस बात का उल्लेख किया है कि इस स्थान पर पहले बद्री के घने वन पाए जाते थे, हालाँकि अब उनका कोई निशान तक नहीं बचा है। बद्रीनाथ नाम की उत्पत्ति पर एक कथा भी प्रचलित है, जो इस प्रकार है – मुनि नारद एक बार भगवान् विष्णु के दर्शन हेतु क्षीरसागर पधारे, जहाँ उन्होंने माता लक्ष्मी को उनके पैर दबाते देखा। चकित नारद ने जब भगवान से इसके बारे में पूछा, तो अपराधबोध से ग्रसित भगवन विष्णु तपस्या करने के लिए हिमालय को चल दिए। जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बद्री के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं। माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि “हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है सो आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा।
पौराणिक लोक कथाओं के अनुसार, बद्रीनाथ तथा इसके आस-पास का पूरा क्षेत्र किसी समय शिव भूमि (केदारखण्ड) के रूप में अवस्थित था। जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह बारह धाराओं में बँट गई, तथा इस स्थान पर से होकर बहने वाली धारा अलकनन्दा के नाम से विख्यात हुई।
मान्यतानुसार भगवान विष्णु जब अपने ध्यानयोग हेतु उचित स्थान खोज रहे थे, तब उन्हें अलकनन्दा के समीप यह स्थान बहुत भा गया। नीलकण्ठ पर्वत के समीप भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतार लिया, और क्रंदन करने लगे। उनका रूदन सुन कर माता पार्वती का हृदय द्रवित हो उठा, और उन्होंने बालक के समीप उपस्थित होकर उसे मनाने का प्रयास किया, और बालक ने उनसे ध्यानयोग करने हेतु वह स्थान मांग लिया। यही पवित्र स्थान वर्तमान में बद्रीविशाल के नाम से सर्वविदित है। विष्णु पुराण में इस क्षेत्र से संबंधित एक अन्य कथा है, जिसके अनुसार धर्म के दो पुत्र हुए- नर तथा नारायण, जिन्होंने धर्म के विस्तार हेतु कई वर्षों तक इस स्थान पर तपस्या की थी। अपना आश्रम स्थापित करने के लिए एक आदर्श स्थान की तलाश में वे वृद्ध बद्री, योग बद्री, ध्यान बद्री और भविष्य बद्री नामक चार स्थानों में घूमे। अंततः उन्हें अलकनंदा नदी के पीछे एक गर्म और एक ठंडा पानी का चश्मा मिला, जिसके पास के क्षेत्र को उन्होंने बद्री विशाल नाम दिया। यह भी माना जाता है कि व्यास जी ने महाभारत इसी जगह पर लिखी थी, और नर-नारायण ने ही क्रमशः अगले जन्म में क्रमशः अर्जुन तथा कृष्ण के रूप में जन्म लिया था। महाभारतकालीन एक अन्य मान्यता यह भी है कि इसी स्थान पर पाण्डवों ने अपने पितरों का पिंडदान किया था। इसी कारण से बद्रीनाथ के ब्रम्हाकपाल क्षेत्र में आज भी तीर्थयात्री अपने पितरों का आत्मा का शांति के लिए पिंडदान करते हैं।
बद्रीनाथ मन्दिर अलकनन्दा नदी से लगभग ५० मीटर ऊंचे धरातल पर निर्मित है, और इसका प्रवेश द्वार नदी की ओर देखता हुआ है। मन्दिर में तीन संरचनाएं हैं: गर्भगृह, दर्शन मंडप, और सभा मंडप। मन्दिर का मुख पत्थर से बना है, और इसमें धनुषाकार खिड़कियाँ हैं। चौड़ी सीढ़ियों के माध्यम से मुख्य प्रवेश द्वार तक पहुंचा जा सकता है, जिसे सिंह द्वार कहा जाता है। यह एक लंबा धनुषाकार द्वार है। इस द्वार के शीर्ष पर तीन स्वर्ण कलश लगे हुए हैं, और छत के मध्य में एक विशाल घंटी लटकी हुई है। अंदर प्रवेश करते ही मंडप है: एक बड़ा, स्तम्भों से भरा हॉल जो गर्भगृह या मुख्य मन्दिर क्षेत्र की ओर जाता है। हॉल की दीवारों और स्तंभों को जटिल नक्काशी के साथ सजाया गया है। इस मंडप में बैठ कर श्रद्धालु विशेष पूजाएँ तथा आरती आदि करते हैं। सभा मंडप में ही मन्दिर के धर्माधिकारी, नायब रावल एवं वेदपाठी विद्वानों के बैठने का स्थान है। गर्भगृह की छत शंकुधारी आकार की है, और लगभग १५ मीटर (४९ फीट) लंबी है। छत के शीर्ष पर एक छोटा कपोला भी है, जिस पर सोने का पानी चढ़ा हुआ है।
गर्भगृह में भगवान बद्रीनारायण की १ मीटर (३.३ फीट) लम्बी शालीग्राम से निर्मित मूर्ति है, जिसे बद्री वृक्ष के नीचे सोने की चंदवा में रखा गया है। बद्रीनारायण की इस मूर्ति को कई हिंदुओं द्वारा विष्णु के आठ स्वयं व्यक्त क्षेत्रों (स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं) में से एक माना जाता है। मूर्ति में भगवान के चार हाथ हैं – दो हाथ ऊपर उठे हुए हैं: एक में शंख, और दूसरे में चक्र है, जबकि अन्य दो हाथ योगमुद्रा (पद्मासन की मुद्रा) में भगवान की गोद में उपस्थित हैं। मूर्ति के ललाट पर हीरा भी जड़ा हुआ है। गर्भगृह में धन के देवता कुबेर, देवर्षि नारद, उद्धव, नर और नारायण की मूर्तियां भी हैं। मन्दिर के चारों ओर पंद्रह और मूर्तियों की भी पूजा की जाती हैं। इनमें लक्ष्मी (विष्णु की पत्नी), गरुड़ (नारायण का वाहन), और नवदुर्गा (नौ अलग-अलग रूपों में दुर्गा) की मूर्तियां शामिल हैं। इनके अतिरिक्त मन्दिर परिसर में गर्भगृह के बाहर लक्ष्मी-नृसिंह और संत आदि शंकराचार्य (७८८–८२० ईसा पश्चात), नर और नारायण, वेदान्त देशिक, रामानुजाचार्य और पांडुकेश्वर क्षेत्र के एक स्थानीय लोकदेवता घण्टाकर्ण की मूर्तियां भी हैं। बद्रीनाथ मन्दिर में स्थित सभी मूर्तियां शालीग्राम से बनी हैं।


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