माँ
माँ! एक शब्द नहीं,
उसमें पूर्ण ब्रम्हांड समाहित है,
आलोकित गगन, पल्लवित धरा,
प्राकृतिक सौन्दर्यबोधता की आभा,
ममता की मूरत, शक्ति की दात्री,
परिलक्षिता, कष्टनिवारणी,
इन सबसे वो परिपूर्ण है,
फिर भी आज का मानव,
हो रहा माँ से दूर है,
गर्भ से लेकर गृहस्थी तक,
स्वयं की अभिलाषाओं को शून्य कर,
नवजीवन प्रदान कर, नवरस पर अग्रसर करती है,
आज वही पुत्र स्वार्थ की लोलुपता में पथभ्रष्ट होकर,
माँ से रहता दूर है,
फिर भी माँ उसे दुलार कर, उसके दुःखों को अंगीकार कर,
दर्द की मीमांसा में स्वयं प्रमोदित रहती है,
वाह री माँ!
तू तो ईश्वर से भी बढ़कर है,
क्योंकि ईश्वर तो बहरा हो सकता है,
मगर माँ तू मेरी एक पुकार पर,
दौडी़ चली आती है,
मेरे दर्द को जानकर जब मेरे सर पर हाथ फेरती है,
तब वो तेरी गोद में बीते बचपन की यादें,
रह रहकर दिलोदिमाग में तैरती है,
माँ! तू तो अपना प्रकृति धर्म निभा रही है,
मगर क्या मैं तेरा ये कर्ज उतार पाऊंगा,
शायद सात जन्मों तक नहीं,
परंतु माँ,
तेरे चरणों में एक जीवन तो क्या,
हर जनम मे कुर्बान हो जाऊँगा,
अगला जनम जो हो मेरा,
फिर तेरी ममतामयी गोद ही पाऊंगा.
अशोक वार्ष्णेय कविमित्र, 9690942335 ,9412133546
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