दीपावली के 11वें दिन यानी एकादशी को मनाया जाता है इगास
समाचार सच, अध्यात्म डेस्क। (देहरादून)। डॉक्टर आचार्य सुशांत राज ने बताया की इगास पर्व दीपावली के 11वें दिन यानी एकादशी को मनाया जाता है। उत्तराखंड के इस लोक उत्सव को इगास बग्वाल, इगास दिवाली और बूढ़ी दीपावली के नाम से भी जाना जाता है। इगास पूरे राज्य में धूमधाम से मनाया जाता है। उत्तराखंड राज्य सरकार द्वारा इगास पर्व के उपलक्ष में राजकीय छुट्टी घोषित की जाती है। इगास पर्व भैलो खेलकर मनाया जाता है। तिल, भंगजीरे, हिसर और चीड़ की सूखी लकड़ी के छोटे-छोटे गठ्ठर बनाकर इसे विशेष प्रकार की रस्सी से बांधकर भैलो तैयार किया जाता है। बग्वाल के दिन पूजा अर्चना के बाद आस-पास के लोग एक जगह एकत्रित होकर भैलो खेलते हैं। भैलो खेल के अंतर्गत, भैलो में आग लगाकर करतब दिखाए जाते हैं साथ-साथ पारंपरिक लोकनृत्य चांछड़ी और झुमेलों के साथ भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भगलू आदि लोकगीतों का आनंद लिया जाता है।
इगास पर्व, इगास बग्वाल, इगास दिवाली, बूढ़ी दीपावली की शुरुआत तिथि कार्तिक शुक्ला एकादशी को होती हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान राम 14 साल बाद लंका पर विजय प्राप्त कर अयोध्या पहुंचे तो लोगों ने दीया जलाकर उनका स्वागत किया और इसे दीपावली के त्योहार के रूप में मनाया। कहा जाता है कि कुमाऊं क्षेत्र के लोगों को इसके बारे में 11 दिनों के बाद पता चला, इसलिए यहां यह दिवाली के 11 दिन बाद मनाया जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार, गढ़वाल के वीर भाद माधो सिंह भंडारी टिहरी के राजा महिपति शाह की सेना के सेनापति थे। लगभग 400 साल पहले राजा ने माधो सिंह को एक सेना के साथ तिब्बत से लड़ने के लिए भेजा था। इसी बीच बगवाल (दिवाली) का त्योहार भी था, लेकिन इस त्योहार तक कोई भी सिपाही वापस नहीं लौट सका। सभी ने सोचा कि माधो सिंह और उनके सैनिक युद्ध में शहीद हो गए, इसलिए किसी ने दिवाली (बगवाल) नहीं मनाई। लेकिन दीवाली के 11वें दिन माधो सिंह भंडारी अपने सैनिकों के साथ तिब्बत से दावापाघाट युद्ध जीतने के लिए लौटे। इसी खुशी में दिवाली मनाई गई।
उत्तराखंड में दिवाली के दिन को बगवाल के रूप में मनाया जाता है। वहीं कुमाऊं में दिवाली के 11 दिन बाद इगास यानी पुरानी दीपावली के रूप में मनाया जाता है। इगास पर्व के दिन सुबह के समय मीठे व्यंजन बनाए जाते हैं। बगवाल के दिन भक्त पूजा-अर्चना और तिलक करने के बाद ग्रामीण एक जगह इकट्ठा होते हैं और भाईलो खेलते हैं। भैलो में आग लगाकर इसे घुमाया जाता है। कई ग्रामीण भाईलो के साथ टोटके भी करते हैं। भैलो रे भैलो, कखरी को रेलु, उजायलू आलो अंधेरो भागलू आदि लोक गीतों के साथ पारंपरिक लोक नृत्य जैसे चंछारी और झुममेल गाए जाते हैं।
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